आजाद भारत की इस यात्रा में हमने क्या-क्या पाया, क्या कुछ खोया : अमेरिकी दूतावास के पूर्व राजनीतिक सलाहकार व लोक संसद के संयोजक श्री दिनेश दुबे

पहली लोक संसद का विषय 'आजादी के 75 साल: कहां है, कहां होना चाहिए' तय किया गया है। इसमें विचारधारा की जगह विचार को अहमियत दी गई है। तभी लोक संसद देश में मौजूद सभी विचाधाराओं का संगम बन सका है ।' संवेदनशील नागरिक बनकर समीक्षा भी करे और आगे की योजना तैयार करें। भारत को भारत के नजरिए से देखते हुए हम सबको योजना बनानी है।' गोविंदाचार्य ने बताया इसी मकसद से लोक संसद का गठन मित्रों ने किया है।

 08 अप्रैल शुक्रवार लोक संसद के पहले संस्करण का आयोजन 8 अप्रैल 2022 को एनडीएमसी कन्वेंशन सेंटर में होने जा रहा है।

लोक संसद’ की संकल्पना ,जरूरत क्यों आन पड़ी इसकी? कई गंभीर मुद्दे पे अमेरिकी दूतावास के पूर्व राजनीतिक सलाहकार व लोक संसद के संयोजक श्री दिनेश दुबे जी बात हुई। 

लोक संसद’ की संकल्पना

‘लोक संसद’ की संकल्पना संसद की इस और इसी तरह की दूसरी कई सीमाओं के बीच से निकली है। मसलन, संसद तक पहुंचने का रास्ता इतना संकरा है कि बहुत सी प्रतिभाशाली सख्शियतें या तो खुद ही अपने कदम वापस खींच लेती हैं या दलीय व्यवस्था उनको बाहर कर देती है। नतीजन राष्ट्र निर्माण में उनकी भागीदारी सीमित हो जाती है.‘लोक संसद’, मुकम्मल जीवन संदर्भ और उसका अर्थ साधने की जिद और जनता के लोकतान्त्रिक प्रशिक्षण की शुरूआत भी है। राजनीति बाजार का ‘चुका हुआ उत्पाद’ नहीं है।  ‘लोक संसद’ का ध्येय है कि लोकतान्त्रिक, सेक्युलर उच्च जीवन मूल्य और प्रगतिशीलता के गतिशील पक्ष उपेक्षित न रह जाएं। हमें निर्वासन और नायकत्व दोनों को उसके सम्पूर्ण अर्थों में समझना है। तभी इसमें शिरकत उनकी होनी है, जिनके पास अनुभव का अकूत भंडार है, और वह भी, जो जोश से भरे हुए हैं। देश की बागडोर संभार रहा हमारा शासकीय नेतृत्व राष्ट्र निर्माण की अपनी योजना पेश करेगा। हमारे राजनेता/चिंतक, छात्र, धर्म/आध्यात्म, सिविल सोसायटी, नौकरशाही न्यायपालिका, मीडिया के प्रतिनिधि संसद का भी हिस्सा बनेंगे। सबकी साझी कोशिश विकसित भारत के सपने को साकार करेगी.।

जरूरत क्यों आन पड़ी इसकी?

इसका जवाब बहुत जरूरी है. क्योंकि यह सवाल किसी के भी जहन में पैदा हो सकता है। ‘लोक संसद’ इसलिए बुलाई गई है कि यहां तुलसी बाबा, सूरदास, संत कबीर, रहीम, रसखान का समवेत स्वर हर वक्त सुनाई देता रहे। भगवान राम, कृष्ण, मुहम्मद साहब, गुरुनानक देव जी के साझे आशीष से जीवन चलता रहे। मसजिद से अजान और मंदिर से हरि कीर्तन साथ-साथ गूंजे। देश धर्म, जाति, बीएचयू, संपूर्णानंद, जामिया, एएमयू, जेएनयू के खांचे में न बंटे। लोक संसद इसलिए भी जरूरी है कि हम सबमें  चंद्र शेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल अशफाक उल्ला खान, बापू, नेताजी, चाचा नेहरू, लौहपुरुष, दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, भगत सिंह , लोहिया, जेपी  समेत सभी का आचार विचार समाहित हो सके। हम नहीं चाहते कि जोड़, जुगत, जुगाड़ और तिकड़म से सियासत साधी जाए। सियासी गलियारे कभी बंद न होने पाएं। वहा बात उनकी भी हो, जो खामोश है़। चाहकर भी उनकी चुप्पी टूट नहीं पाती। लोक संसद, सन्नाटे में से ध्वनि, शोर में से संगीत और अंधकार में से प्रकाश ढूंढ लेने की कोशिश भी है और जिद भी. सबके साथ उठे कदम मंजिल तक पहुंचाएंगे भी।

आयोजन होगा कैसे*

‘लोक संसद’ का गठन इस मकसद से किया गया है कि वह राष्ट्र की चिंता करे। साफ-सुथरी चुनाव प्रणाली से गुजकर वहां पहुंचने वाले प्रतिनिधि दलीय प्रतिबद्धता को लांघकर देश को दिशा देने वाली सार्थक चर्चाएं करें। लेकिन आज चुनाव प्रणाली इतनी जटिल हो गई है कि बहुत से अच्छे लोग खुद को इससे बाहर कर लेते हैं, जबकि देश-समाज को लेकर उनकी सोच काफी बेहतर होती है। फिर, संसद की चर्चाएं दलीय हितों को साधने का जरिया बन गई हैं। नतीजन बेहतर विचारों की पनपने से पहले ही खत्म हो जाते हैं। मौजूदा संसदीय प्रणाली की सीमाओं से बाहर जाते हुए हम लोग लोक संसद का आयोजन करने जा रहे हैं। इसमें देश के हर तबके का प्रतिनिधित्व रहेगा। हमारे राजनेता/चिंतक, छात्र, धर्म/आध्यात्म, सिविल सोसायटी, नौकरशाही न्यायपालिका, मीडिया के प्रतिनिधि संसद का भी हिस्सा बनेंगे और दर्शक दीर्घा की भी। ‘लोक संसद’ की आवाज को लिपिबद्ध कर अपने शीर्ष शासनिक नेतृत्व को सौंपा जाएगा, जिससे बेहतर भारत के निर्माण की उसे दिशा मिल सके।