क्यों कहा जाता है गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्रकारिता का आदर्श ?

गणेश शंकर 'विद्यार्थी': जिनकी लेखनी से हिलती थी अंग्रेज सरकार

क्यों कहा जाता है गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्रकारिता का आदर्श ?
क्यों कहा जाता है गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्रकारिता का आदर्श ?

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता जगत का एक ऐसा नाम था जिनकी लेखनी ने ब्रिटिश सरकार की रातों की नींद उड़ा दी थी. गणेश शंकर विद्यार्थी की डेथ एनिवर्सरी पर जानें उनसे जुड़ी प्रमुख बातें.

Ganesh Shankar Vidyarthi Death Anniversary: आज 25 मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी 91वीं पुण्य तिथि है. गणेश शंकर विद्यार्थी को हिंदी पत्रकारिता का प्रमुख स्तंभ माना जाता है. वे भारतीय इतिहास के एक संवेदनशील पत्रकार होने के साथ ही सच्चे देशभक्त, समाजसेवी, स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय कार्यकर्ता भी थे. उनकी लेखनी की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि उनदिनों उनकी पत्रकारिता ने ब्रिटिश शासन की नींद उड़ा दी थी. जान लें गणेश शंकर विद्यार्थी से जुड़ी ये प्रमुख बातें.

यूपी के कायस्थ परिवार में हुआ था जन्म

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के हाथगांव के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम मुंशी जयनारायण था जोकि एक स्कूल में हेडमास्टर थे. उन्होंने इलाहबाद के कायस्थ पाठशाला कॉलेज में आगे की पढ़ाई की, लेकिन उससे गरीबी की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी.

गणेश शंकर विद्यार्थी को आज भी माना जाता है आदर्श

  • ब्रिटिश सत्ता के अत्याचारों के विरूद्ध लिखने के कारण वे 5 बार जेल जा चुके थे.

  • गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के हाथगांव के एक कायस्थ परिवार में हुआ था.

  • सन् 1925 में हुए कानपुर अधिवेशन में स्वागत समिति के प्रधानमंत्री और 1930 में प्रांतीय समिति के अध्यक्ष होने के साथ उन्हें सत्याग्रह आंदोलन में भी एक प्रमुख भूमिका दी गई थी.

  • सन् 1913 में कानपुर में ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप नाम से अपना खुद का हिंदी साप्ताहिक निकाला.

  • क्रांतिकारी पत्रकारिता के कारण ही गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके अखबार प्रताप को आज के दौर में भी पत्रकारिता जगत के लिए एक आदर्श माना जाता है.

दंगाइयों ने बेरहमी से कर दी थी गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या

सन् 1931 में 25 मार्च को कांग्रेस सम्मेलन के लिए उन्हें कानपुर से कराची जाना था, लेकिन इससे पहले विद्यार्थी कानपुर से निकलते उन्हें खबर मिली की शहर में सांप्रदायिक दंगे होने लगे हैं. यह बात सुनते ही वे लोगों की जान बचाने के लिए घर से तुरंत निकल गए. आम लोगों को दंगाइयों से बचाने के क्रम में ही उनकी जान चली गई थी. 

हिंदी में उनके होने की एक अहमियत है, इसलिए गणेश शंकर 'विद्यार्थी' को जानना जरूरी है. आजादी आंदोलन के दौर में दंगाई भीड़ के बीच भाईचारा कायम करने के लिए उन्होंने जान दे दी. वह 25 मार्च, 1931 की तारीख थी, जब उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगे के दौरान हिंसक भीड़ की चपेट में आ उन्होंने जान गंवा दी. एक ऐसा मसीहा जिसने इस दंगे के दौरान भी हजारों लोगों की जान बचाई थी और खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया. आजादी के इस दीवाने और सांप्रदायिक सौहार्द के पुजारी गणेश शंकर 'विद्यार्थी' का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मौहल्ले में हुआ था. इनके पिता जयनारायण गरीब, धार्मिक प्रवित्ति के पर उसूलों पर चलने वाले इंसान थे. वह ग्वालियर रियासत के मुंगावली में एक स्कूल में हेडमास्टर थे. गणेश की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उर्दू और अंग्रेजी में हुई. 1905 ई. में हाईस्कूल और 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद जब उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में दाखिला लिया, तो उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ. प्रसिद्ध लेखक पंडित सुन्दर लाल के साथ वे हिंदी साप्ताहिक 'कर्मयोगी' के संपादन में उनकी सहायता करने लगे. कानपुर के करेंसी, पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में अध्यापन के दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) और हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे. पत्रकारिता, सामाजिक कार्य और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ाव के दौरान उन्होंने 'विद्यार्थी' उपनाम अपनाया.

उसी दौर में उनके लेखन ने हिंदी पत्रकारिता जगत के अगुआ पंडित महाबीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान अपनी ओर खींचा. द्विवेदी जी ने सन 1911 में उन्हें अपनी साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया, पर विद्यार्थी ने समाचार, सम-सामयिक और राजनीतिक विषयों में ज्यादा थी, इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिक 'अभ्युदय' में नौकरी कर ली. 1913 में विद्यार्थी कानपुर पहुंच गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर 'प्रताप' पत्रिका निकालकर उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया. प्रताप के माध्यम से वह पीड़ितों, किसानों, मिल-मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों का दुख उजागर करने लगे, जिसका नतीजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. अंग्रेज सरकार ने उनपर कई मुकदमे किए, भारी जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार कर जेल भी भेजा.

कहते हैं 1916 में महात्मा गांधी से पहली मुलाकात के बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया. उन्होंने साल 1917-18 में 'होम रूल' आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया. साल 1920 में उन्होंने 'प्रताप' का दैनिक संस्करण निकालना शुरू कर दिया. इसी साल उन्हें रायबरेली के किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए 2 साल के कठोर कारावास की सजा हुई. 1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर लिया. साल 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था. कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस के राज्य विधान सभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी 1925 में कानपुर से ही यू.पी. विधानसभा के लिए चुने गए और 1929 में पार्टी की मांग पर त्यागपत्र दे दिया. साल 1929 में ही उन्हें यू.पी. कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी दी गई. उसके बाद 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया, जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को हुई. विद्यार्थी को कानपुर शहर में सांप्रदायिक दंगों की वजह से 25 मार्च, 1931 को अपने प्राण गंवाने पड़े थे, लेकिन केवल दंगा ही उनकी मौत का कारण नहीं था. जब उनकी कलम चलती थी, तो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल जाती थीं. गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार 'प्रताप' आज भी पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए आदर्श माने जाते हैं. भगत सिंह, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेही, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्तों ने 'प्रताप प्रेस' की 'ज्वाला' से राष्ट्रप्रेम को घर-घर तक पहुंचा दिया था. गणेश शंकर विद्यार्थी एक महान क्रांतिकारी, निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे. भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है. गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा दी थी. इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया. अपने छोटे जीवन-काल में उन्होंने उत्पीड़न क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई. उत्पीड़न और अन्याय की खिलाफत में हमेशा आवाज़ बुलंद करना ही उनके जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य था, चाहे वह नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति, उच्च जाति, संप्रदाय और धर्म की ही क्यों न हो. वह उसी के लिए जीए और उसी के लिए मरे.

पंडित गणेशशंकर 'विद्यार्थी' (1890 - 25 मार्च 1931), हिन्दी के पत्रकार एवं भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही एवं सुधारवादी नेता थे। पंडित गणेशशंकर 'विद्यार्थी' का जन्म आश्विन शुक्ल 14, रविवार सं. 1947 (1890 ई.) को अपनी ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में श्रीवास्तव (कायस्थ) परिवार में हुआ। इनके पिता मुंशी जयनारायण कायस्थ हथगाँव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। माता का नाम गोमतीदेवी था। पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। वहीं विद्यार्थी जी का बाल्यकाल बीता तथा शिक्षा-दीक्षा हुई। विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेज़ी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। लगभग एक वर्ष कालेज में पढ़ने के बाद 1908 ई. में कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. मासिक की नौकरी की। परंतु अंग्रेज अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण उसे छोड़कर पृथ्वीनाथ हाई स्कूल, कानपुर में 1910 ई. तक अध्यापकी की। इसी अवधि में सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में समय समय पर लेख लिखने लगे। 1911 में विद्यार्थी जी सरस्वती में पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद "सरस्वती" छोड़कर "अभ्युदय" में सहायक संपादक हुए। यहाँ सितंबर, 1913 तक रहे। दो ही महीने बाद 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। इसी समय से 'विद्यार्थी' जी का राजनीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद आप उनके अनन्य भक्त हो गए। श्रीमती एनीं बेसेंट के 'होमरूल' आंदोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से काम किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के एक छात्र नेता हो गए। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर "प्रताप" में लेख लिखने के संबंध में ये 5 बार जेल गए और "प्रताप" से कई बार जमानत माँगी गई। कुछ ही वर्षों में वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्तप्रात) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गए। 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधानमंत्री हुए तथा 1930 ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुए। इसी नाते सन् 1930 ई. के सत्याग्रह आंदोलन के अपने प्रदेश के सर्वप्रथम "डिक्टेटर" नियुक्त हुए। साप्ताहिक "प्रताप" के प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और "प्रभा" नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली। "प्रताप" किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे। "चिट्ठी पत्री" स्तंभ "प्रताप" की निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। ये "प्रताप" में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी ये प्रताप तथा अन्य पत्रों में लेख लिखा करते थे। अपने जेल जीवन में इन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, "ला मिजरेबिल्स" तथा "नाइंटी थ्री" का अनुवाद किया। हिंदी साहित्य सम्मलेन के 19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए। विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी किंतु साथ ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त थे। वक्ता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे। यह स्वभाव के अत्यंत सरल, किंतु क्रोधी और हठी भी थे। कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में मुस्लिमों द्वारा 25 मार्च 1931 ई. को इनकी हत्या कर दी गई|